
अमेरिका के साथ चल रहे टैरिफ विवादों के बीच भारत और चीन के रिश्तों में मिठास आना शुरू हो गई है। दोनों देशों ने अपने बंद पड़े व्यापार को लिपुलेख दर्रे के जरिये फिर से शुरू करने पर सहमति दर्ज कराई है। साथ ही सीमा पर तनाव को दूर करने के प्रयास में हैं।
Explainer: भारत और अमेरिका के बीच सबकुछ ठीक-ठाक चल रहा था। उम्मीद थी कि 2025 में दोबारा ट्रंप की सत्ता में वापसी के बाद भारत और अमेरिका के रिश्ते और मजबूत होंगे, लेकिन ऐसा हुआ नहीं। ट्रंप की नई टैरिफ पॉलिसी ने सिर्फ भारत को ही नहीं, बल्कि चीन, ब्राजील, कनाडा समेत दुनिया के तमाम देशों से अपने रिश्तों को तनावपूर्ण कर लिया है। अमेरिका ने भारत पर रूस से कच्चा तेल खरीदने की झुंझलाहट में 50 फीसदी का टैरिफ लगा दिया। इसके बाद भारत और अमेरिका के रिश्ते बेहद तनावपूर्ण दौर में पहुंच गए। इस बीच परस्पर प्रतिद्वंदी भारत और चीन के बीच दोस्ती का एक नया अंकुर फूटने लगा है। यह कूटनीतिक दोस्ती भारत और चीन दोनों के लिए कितना फायदेमंद है और यह अमेरिका के लिए कितना बड़ा झटका है, आइये विस्तार से समझते हैं।
अमेरिका ने बदला भू-राजनीतिक परिदृश्य
अमेरिका के टैरिफ वार ने अकेले भारत के साथ ही नहीं, बल्कि दुनिया के तमाम अन्य देशों के साथ भी अपने रिश्तों में कड़वाहट घोल लिया है। ट्रंप के इस फैसले ने वैश्विक भू-राजनीतिक परिदृश्य को भी बदल दिया है। क्योंकि 2025 में अमेरिका द्वारा विभिन्न देशों पर लगाए गए नए टैरिफ (शुल्क) केवल आर्थिक नीतियों तक सीमित नहीं रहे, बल्कि उन्होंने वैश्विक भू-राजनीतिक संतुलन को भी हिला दिया है। अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के कार्यकाल के दौरान शुरू हुआ टैरिफ युद्ध अब दोबारा जोर पकड़ चुका है। इन्हीं बदली वैश्विक भू-राजनीतिक परिस्थितियों ने भारत और चीन जैसे प्रतिद्वंदी देशों को भी एक दूसरे के बेहद करीब ला दिया।
क्या हैं अमेरिका के नए टैरिफ?
2025 की शुरुआत में अमेरिका ने चीन, भारत, वियतनाम, ब्राजील, कनाडा और मैक्सिको जैसे देशों से आयातित वस्तुओं पर भारी टैरिफ लगाए। मुख्य रूप से इलेक्ट्रॉनिक्स, स्टील, टेक्सटाइल्स, फार्मास्यूटिकल्स और ग्रीन एनर्जी टेक्नोलॉजी से जुड़ी वस्तुओं पर 25-35% तक का आयात शुल्क बढ़ा दिया गया। ट्रंप और उनके समर्थकों का तर्क है कि यह कदम अमेरिकी विनिर्माण को बढ़ावा देगा, घरेलू नौकरियों की रक्षा करेगा और चीन को आर्थिक रूप से पीछे धकेलेगा।
भारत और चीन क्यों आए करीब?
अमेरिका के इस टैरिफ वार के चलते उसके साथ व्यापार करने वाले देशों को भारी आर्थिक नुकसान हुआ है। भारत और चीन भी इससे अछूते नहीं रहे। लिहाजा परंपरागत रूप से रणनीतिक प्रतिद्वंद्वी रहे ये दोनों देश अब अमेरिका की आर्थिक नीतियों के खिलाफ सामूहिक मोर्चा बनाने की दिशा में आगे बढ़ते दिख रहे हैं। हाल ही में ब्रिक्स सम्मेलन के दौरान भारत और चीन के प्रतिनिधियों के बीच कई दौर की सकारात्मक बातचीत हुई। दोनों देशों ने “विकासशील देशों के खिलाफ भेदभावपूर्ण व्यापार नीतियों” का विरोध करने पर सहमति जताई। इसके बाद चीनी विदेश मंत्री वांग यी की हालिया भारत यात्रा के बाद भारत-चीन में लिपुलेख दर्रे के जरिये व्यापार की बंद पड़ी राह दोबारा खुलने से अमेरिका को बड़ा रणनीतिक और आर्थिक झटका लगा है। अमेरिकी टैरिफ ने गलवान घाटी की हिंसा के बाद से तनावपूर्ण रिश्तों में जी रहे भारत और चीन को एक दोस्त और समझदार पड़ोसी के रूप में फिर से लामबंद कर दिया है। दोनों ही देशों को इसके कूटनीतिक और रणनीतिक फायदे हैं।
भारत के साथ खड़ा हुआ चीन
नई दिल्ली पर भारी-भरकम अमेरिकी टैरिफ के खिलाफ चीन भी भारत के साथ खड़ा हो गया है। चीन ने इसे भारत पर अमेरिका की दादागिरी करार दिया है। इसके अलावा चीन ने भारत को एशिया-पैसिफिक क्षेत्र में एक रणनीतिक साझेदार मानने की इच्छा जताई है। यह एक ऐसी भाषा है जो पहले चीन की ओर से कम ही सुनने को मिलती थी। भारत भी अब व्यावसायिक अवसरों के लिए अधिकाधिक दक्षिण-दक्षिण सहयोग (Global South) की ओर रुख कर रहा है। अमेरिका के टैरिफ ने भारत को यह सोचने पर मजबूर किया है कि क्या वह “एकपक्षीय पश्चिमी व्यवस्था” पर अधिक निर्भर रह सकता है।
भू-राजनीतिक मायने क्या हैं?
अमेरिका की साख पर असर
अमेरिका के “अमेरिका फर्स्ट” रुख ने कई देशों को यह संकेत दिया है कि वह अब वैश्विक नेतृत्व के बजाय घरेलू एजेंडे को प्राथमिकता देता है। इससे उभरते देशों के बीच विश्वास की कमी हुई है। इससे अमेरिका की साख वैश्विक स्तर पर गिरी है।
ब्रिक्स और वैश्विक दक्षिण को बढ़ावा
अमेरिका के इस कदम से ब्रिक्स (BRICS) अब आर्थिक से ज्यादा राजनीतिक मंच बनता जा रहा है। भारत-चीन सहयोग इस संगठन को अमेरिकी वर्चस्व के मुकाबले एक वैकल्पिक ध्रुव बना सकता है। अगस्त के आखिरी और सितंबर के पहले हफ्ते में चीन में होने वाला संघाई सहयोग शिखर सम्मेलन (एससीओ) में भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, रूस के राष्ट्रपति व्लादिमिर पुतिन और चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग की मौजूदगी की संभावनाओं ने अमेरिका को एक नया झटका देने की तैयारी शुरू कर दी है। भारत-रूस और चीन की यह तिकड़ी अमेरिकी टैरिफ का मुकाबला करने के लिए एससीओ और ब्रिक्स में अपनी मुद्रा में व्यापार के एजेंडे को आगे बढ़ा सकती है।
रणनीतिक संतुलन में बदलाव
भारत पारंपरिक रूप से अमेरिका और पश्चिमी देशों के साथ रणनीतिक साझेदार रहा है, लेकिन अब वह बहुध्रुवीय विश्व व्यवस्था को प्राथमिकता देता दिख रहा है, जिसमें चीन के साथ सामंजस्य भी शामिल हो सकता है। इस बीच भारत और चीन मिलकर लद्दाख की सीमा पर वर्षों से चले आ रहे तनावों को भी दूर करने में जुटे हैं। भारत चीन के साथ ही साथ रूस के संग भी अपने पारंपरिक रिश्तों को और अधिक मजबूती दे रहा है।
टेक्नोलॉजी और सप्लाई चेन में बदलाव
अमेरिकी टैरिफ के कारण कई बहुराष्ट्रीय कंपनियां अपनी आपूर्ति शृंखलाओं को अब अमेरिका से बाहर अन्य बाज़ारों में स्थानांतरित कर रही हैं। भारत और चीन दोनों इसके लाभार्थी बन सकते हैं। अगर वे प्रतिस्पर्धा की जगह सहयोग का रास्ता अपनाते हैं तो दोनों ही देशों को इसका परस्पर लाभ मिलेगा।
क्या भारत और चीन बन गए दोस्त?
भारत और चीन का एक-दूसरे के करीब आना स्थायी होगा या अस्थायी यह आने वाले महीनों में स्पष्ट होगा। मगर अमेरिका की टैरिफ नीति ने यह तो साफ कर दिया है कि आर्थिक निर्णयों का प्रभाव केवल व्यापारिक आंकड़ों तक नहीं होता, बल्कि वे वैश्विक गठबंधनों और सामरिक सोच को भी गहराई से प्रभावित करते हैं। कूटनीतिक रूप से ही सही, मगर इस दौरान भारत और चीन की नजदीकी दोनों ही देशों के लिए फायदेमंद है। यह अमेरिका को उसके टैरिफ का जवाब देने का सही कूटनीतिक कदम भी है।